संतों की भूमि महाराष्ट्र में साईंबाबा का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा के साथ तो लिया ही जाता है, उनके अनेक मंदिर भी जगह-जगह बन चुके हैं। सन् 1918 की विजयादशमी के दिन शिरडी .शिलधी. में समाधि लेने वाले साईं बाबा का न तो जन्मकाल किसी को मालूम है, न ही उनके माता-पिता के बारे में और न उनके जाति-धर्म के बारे में।उन्होंने अपनी साधना और जनसेवा का केंद्र शिरडी की एक टूटी—फुटी मस्जिद को बनाया, जिसके कारण कई लो...ग संदेह करते हैं कि वह हिंदू नहीं मुसलमान थे।
सन् 1840-50 के दरम्यान उन्हें शिरडी के खंडोबा मंदिर के पास देखा गया। एक बड़े काश्तकार चांदभाई पाटील सर्वप्रथम उनके संपर्क में आए। बताया जाता है कि उनका घोड़ा गुम हो गया था, जिसे खोजने वे जंगल गए, जहां एक 15—16 साल का फकीरी बाना पहने एक बालक उन्हें मिला। उसने नाम लेकर घोड़ा वहीं बुला दिया। पाटील इस तिलस्मी युवक के मुरीद हो गए। धूपखेड़ गांव के पाटील उस फकीर को अपने साथ ले आए। कुछ दिनों बाद वे अपने भांजे की बारात लेकर शिरडी गए तो फकीर भी बारात में गया और शिरडी का ही होकर रह गया। आज दुनिया उसे शिरडी के साईंबाबा के नाम से जानती है।
छोटे से गांव से चारों ओर
सन् 1850 से लेकर 1918 के बीच में साईंबाबा ने शिरडी में अपने कई चमत्कार दिखाए। उनका नाम छोटे से गांव के चारों ओर फैला और तमाम जगहों से भक्त उनके पास पहुंचने लगे।
शिरडी में उनसे जुड़े लोगों ने उनका सिलसिलेवार प्रचार किया और देश में जगह—जगह उनके मंदिर बनवाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। सन् 71 में नागपुर के विजय बाबा कोंड्रा शिरडी गए हुए थे तो वहां के कोर्ट रिसीवर काशी पाठक ने कोंड्राजी से कहा कि जिस नागपुर की गोपालराव बूटी जैसी हस्ती साईंबाबा की सेवा में रहती थी, वहां मंदिर क्यों नहीं बन रहा। साईबाबा के अनन्य भक्त व सिद्ध पुरूष माने जाने वाले विजय बाबा कोंड्रा को यह बात लग गई। उन्होंने नागपुर आकर उस समय के शहर के गिने—चुने भक्तों से चर्चा की। हितवाद के तत्कालीन संपादक ए.डी. मणि और तत्कालीन क्षेत्रीय सांसद एन.के.पी. साल्वे ने इस मसले पर तुरंत सहमति दी एक सात सदस्यीय ट्रस्ट का गठन हुआ। इस ट्रस्ट के प्रयासों से सन् 74 में वर्धा रोड में 20,000 वर्ग फीट जमीन खरीदी गई; सन् 76 में भूमिपूजन हुआ और 3 दिसंबर सन् 79 को दत्त जयंती के दिन मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो गई।
'संतवाणी' में दिलीपकुमार
वर्धा रोड स्थित उक्त मंदिर में नागपुर का पहला साईं मंदिर है। इसकी कई विशेषताएं हैं— एक तो यह कि इसमें बाबा की जो प्रतिमा विराजमान है वह शिरडी में विराजी प्रतिमा की अनुकृति है और मुंबई के उसी 'तालीम आर्ट' ने बनाया है जिसने शिरडी की मूल प्रतिमा बनाई थी। मंदिर की दूसरी विशेषता यह कि इस मंदिर निर्माण के लिए पैसा जुटाने के क्रम में सन् 74 में प्रख्यात शास्त्रीय संगीत गायक भीमसेन जोशी का गायन कार्यक्रम 'संतवाणी' नागपुर में आयोजित किया गया और उसमें फिल्म अभिनेता दिलीपकुमार मुख्य अतिथि बनाकर बुलाए गए। इसी क्रम में सन् 77 में धर्मेंद्र—हेमामालिनी की उपस्थिति में 'शैलेंद्र सिंह नाइट' का आयोजन भी हुआ।
जहां तक विदर्भ में साईं मंदिरों के निर्माण की अवधि का सवाल है तो सन् 70 में अमरावती में साईंबाबा का पहला मंदिर बना। तदुपरांत चंद्रपुर और वर्धा में मंदिर बने। फिर सन्79 के आखिर में नागपुर में पहला वृहद मंदिर बना। वैसे यहां धंतोली में साईंबाबा का मंदिर और है जिसे स्वयंभू कहते हैं और जो सन् 1956 में बना। वास्तव में, इस मंदिर के संचालक विजय बाबा कोंड्रा ही वर्धा रोड स्थित बड़े मंदिर के सूत्रधार भी हैं।
भक्त बढ़ रहे हैं बाबा के
साईंबाबा के मुरीदों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज जरीपटका, अयोध्या नगर और साईंनगर झिंगाबाई टाकली में भी साईं मंदिर हैं पर सर्वोपरि वर्धा रोड स्थित साईं मंदिर ही है। शहर के हर भाग से यहां लोग पहुंचते हैं। गुरुवार के दिन भक्तों की भीड़ देचते ही बनती है। दोपहर में देर तक चलती आरती के दरम्यान सामने खड़े नर—नारियों और बच्चों की सामूहिक प्रार्थना को सुन बाबा मंद—मंद मुस्कुराते बैठे सबको देखते नजर आते हैं। सामान्यत: साईंबाबा को दत्त़ात्रेय का अवतार माना जाता है पर यह भी एक सच्चाई है कि बाबा स्वयं दत्तात्रेय के उपासक नहीं बल्कि राम के उपासक थे।
कई मौकों पर वे अपने भक्तों को हनुमान जी पूजा करने तथा कभी शंकर की उपासना करने की सलाह भी देते थे। शिरडी के उनके शुरुआती काल में जब लोगों ने उन्हें तेल तक देने से मना कर दिया तो बाबा ने 'द्वारका माई'में पानी के दीपक जगमगा कर चकित कर दिया। लोग उनके पास अपनी शारीरिक व्याधियां दूर कराने जाने लगे। कोई भूत—बाधा दूर कराने, कोई पुत्र प्राप्ति के लिए तो कोई धन—धान्य से समृद्ध होने उनके पास आने लगे। कहा जाता है कि बाबा योग विद्या भी जानते थे। एक बार शिरडी के आसपास प्लेग फैला तो बाबा ने स्वयं पत्थ्र की चकिया पीसकर आटा निकाला और लोगों से उसे गांव की सीमारेखा पर डालने के लिए कहा ताकि प्लेग बस्ती के अंदर न घुसे और ऐसा हुआ भी।
शिरडी में आज भी वह आटा—चक्की रखी है। नागपुर के साईबाबा मंदिर में भी सन् 2002 में जब नवनिर्माण् हुआ तो वहां प्रतीक के तौर पर एक चकिया धूनी स्थल के पास रख दी गई है। भगवान दत्त, गणेश, दुर्गा माता के अलावा यहां एक शिवलिंग भी स्थापित है। बाबा के टीक सामने दरवाजे पर एक नंदी भी बिठाया गया है। अनेक भक्त इस नंदी के कान में अपनी मनोकामना बताते हुए देखे जाते हैं। उनकी मान्यता है कि नंदी हमारी कामना को बाबा से कहकर पूरी कराएगा क्योंकि दत्तात्रेय भगवान में शंकर का रूप भी था और शंकर के वाहक नंदी हैं।
गुरुवार को भीड़
मंदिर में गुरुवार को अच्छी खसी भीड़ होती है। दरवाजे से लगी दुकानों की वजह से थोड़ी अव्यवस्था है, जिसे वर्तमान मंदिर—प्रबंधक वर्ग दूर करने में लगा है। मंदिर के बगल में बने कार्यालय भवन में विजय विनायक पाठक नामक व्यक्ति लेखा—जोखा के काम में जुटे मिले। मंदिर की व्यवस्था में 3—4 लाख रुपया मासिक खर्च होता है। भक्त दिल खोलकर दान भी करते हैं और 10—12 लाख रुपया मंदिर चढ़ौत्री, दान—पेटी एवं 'देणगी' के रूप में लिए गए चंदे से प्रतिमाह आता है। कभी ज्यादा कभी कम भी हो जाता है। वास्तव में; फकीर बाबा का यह मंदिर शहर के गणेश टेकड़ी एवं तेलंग खेड़ी जैसे 'अच्छे चलते हुए' मंदिरों जैसा है, जहां भक्त हमेशा बने ही रहते हैं। संभवत: मंदिर की आमदनी को देखकर यहां सन् 82 से लेकर 98 के दरम्यान मंदिर की व्यवस्था पर कब्जे को लेकर लंबा संघर्ष चला। इस बीच यह मंदिर बाबा(जयंत) उत्तरवार की देखरेख में चलता रहा।
सन् 1840-50 के दरम्यान उन्हें शिरडी के खंडोबा मंदिर के पास देखा गया। एक बड़े काश्तकार चांदभाई पाटील सर्वप्रथम उनके संपर्क में आए। बताया जाता है कि उनका घोड़ा गुम हो गया था, जिसे खोजने वे जंगल गए, जहां एक 15—16 साल का फकीरी बाना पहने एक बालक उन्हें मिला। उसने नाम लेकर घोड़ा वहीं बुला दिया। पाटील इस तिलस्मी युवक के मुरीद हो गए। धूपखेड़ गांव के पाटील उस फकीर को अपने साथ ले आए। कुछ दिनों बाद वे अपने भांजे की बारात लेकर शिरडी गए तो फकीर भी बारात में गया और शिरडी का ही होकर रह गया। आज दुनिया उसे शिरडी के साईंबाबा के नाम से जानती है।
छोटे से गांव से चारों ओर
सन् 1850 से लेकर 1918 के बीच में साईंबाबा ने शिरडी में अपने कई चमत्कार दिखाए। उनका नाम छोटे से गांव के चारों ओर फैला और तमाम जगहों से भक्त उनके पास पहुंचने लगे।
शिरडी में उनसे जुड़े लोगों ने उनका सिलसिलेवार प्रचार किया और देश में जगह—जगह उनके मंदिर बनवाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। सन् 71 में नागपुर के विजय बाबा कोंड्रा शिरडी गए हुए थे तो वहां के कोर्ट रिसीवर काशी पाठक ने कोंड्राजी से कहा कि जिस नागपुर की गोपालराव बूटी जैसी हस्ती साईंबाबा की सेवा में रहती थी, वहां मंदिर क्यों नहीं बन रहा। साईबाबा के अनन्य भक्त व सिद्ध पुरूष माने जाने वाले विजय बाबा कोंड्रा को यह बात लग गई। उन्होंने नागपुर आकर उस समय के शहर के गिने—चुने भक्तों से चर्चा की। हितवाद के तत्कालीन संपादक ए.डी. मणि और तत्कालीन क्षेत्रीय सांसद एन.के.पी. साल्वे ने इस मसले पर तुरंत सहमति दी एक सात सदस्यीय ट्रस्ट का गठन हुआ। इस ट्रस्ट के प्रयासों से सन् 74 में वर्धा रोड में 20,000 वर्ग फीट जमीन खरीदी गई; सन् 76 में भूमिपूजन हुआ और 3 दिसंबर सन् 79 को दत्त जयंती के दिन मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो गई।
'संतवाणी' में दिलीपकुमार
वर्धा रोड स्थित उक्त मंदिर में नागपुर का पहला साईं मंदिर है। इसकी कई विशेषताएं हैं— एक तो यह कि इसमें बाबा की जो प्रतिमा विराजमान है वह शिरडी में विराजी प्रतिमा की अनुकृति है और मुंबई के उसी 'तालीम आर्ट' ने बनाया है जिसने शिरडी की मूल प्रतिमा बनाई थी। मंदिर की दूसरी विशेषता यह कि इस मंदिर निर्माण के लिए पैसा जुटाने के क्रम में सन् 74 में प्रख्यात शास्त्रीय संगीत गायक भीमसेन जोशी का गायन कार्यक्रम 'संतवाणी' नागपुर में आयोजित किया गया और उसमें फिल्म अभिनेता दिलीपकुमार मुख्य अतिथि बनाकर बुलाए गए। इसी क्रम में सन् 77 में धर्मेंद्र—हेमामालिनी की उपस्थिति में 'शैलेंद्र सिंह नाइट' का आयोजन भी हुआ।
जहां तक विदर्भ में साईं मंदिरों के निर्माण की अवधि का सवाल है तो सन् 70 में अमरावती में साईंबाबा का पहला मंदिर बना। तदुपरांत चंद्रपुर और वर्धा में मंदिर बने। फिर सन्79 के आखिर में नागपुर में पहला वृहद मंदिर बना। वैसे यहां धंतोली में साईंबाबा का मंदिर और है जिसे स्वयंभू कहते हैं और जो सन् 1956 में बना। वास्तव में, इस मंदिर के संचालक विजय बाबा कोंड्रा ही वर्धा रोड स्थित बड़े मंदिर के सूत्रधार भी हैं।
भक्त बढ़ रहे हैं बाबा के
साईंबाबा के मुरीदों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज जरीपटका, अयोध्या नगर और साईंनगर झिंगाबाई टाकली में भी साईं मंदिर हैं पर सर्वोपरि वर्धा रोड स्थित साईं मंदिर ही है। शहर के हर भाग से यहां लोग पहुंचते हैं। गुरुवार के दिन भक्तों की भीड़ देचते ही बनती है। दोपहर में देर तक चलती आरती के दरम्यान सामने खड़े नर—नारियों और बच्चों की सामूहिक प्रार्थना को सुन बाबा मंद—मंद मुस्कुराते बैठे सबको देखते नजर आते हैं। सामान्यत: साईंबाबा को दत्त़ात्रेय का अवतार माना जाता है पर यह भी एक सच्चाई है कि बाबा स्वयं दत्तात्रेय के उपासक नहीं बल्कि राम के उपासक थे।
कई मौकों पर वे अपने भक्तों को हनुमान जी पूजा करने तथा कभी शंकर की उपासना करने की सलाह भी देते थे। शिरडी के उनके शुरुआती काल में जब लोगों ने उन्हें तेल तक देने से मना कर दिया तो बाबा ने 'द्वारका माई'में पानी के दीपक जगमगा कर चकित कर दिया। लोग उनके पास अपनी शारीरिक व्याधियां दूर कराने जाने लगे। कोई भूत—बाधा दूर कराने, कोई पुत्र प्राप्ति के लिए तो कोई धन—धान्य से समृद्ध होने उनके पास आने लगे। कहा जाता है कि बाबा योग विद्या भी जानते थे। एक बार शिरडी के आसपास प्लेग फैला तो बाबा ने स्वयं पत्थ्र की चकिया पीसकर आटा निकाला और लोगों से उसे गांव की सीमारेखा पर डालने के लिए कहा ताकि प्लेग बस्ती के अंदर न घुसे और ऐसा हुआ भी।
शिरडी में आज भी वह आटा—चक्की रखी है। नागपुर के साईबाबा मंदिर में भी सन् 2002 में जब नवनिर्माण् हुआ तो वहां प्रतीक के तौर पर एक चकिया धूनी स्थल के पास रख दी गई है। भगवान दत्त, गणेश, दुर्गा माता के अलावा यहां एक शिवलिंग भी स्थापित है। बाबा के टीक सामने दरवाजे पर एक नंदी भी बिठाया गया है। अनेक भक्त इस नंदी के कान में अपनी मनोकामना बताते हुए देखे जाते हैं। उनकी मान्यता है कि नंदी हमारी कामना को बाबा से कहकर पूरी कराएगा क्योंकि दत्तात्रेय भगवान में शंकर का रूप भी था और शंकर के वाहक नंदी हैं।
गुरुवार को भीड़
मंदिर में गुरुवार को अच्छी खसी भीड़ होती है। दरवाजे से लगी दुकानों की वजह से थोड़ी अव्यवस्था है, जिसे वर्तमान मंदिर—प्रबंधक वर्ग दूर करने में लगा है। मंदिर के बगल में बने कार्यालय भवन में विजय विनायक पाठक नामक व्यक्ति लेखा—जोखा के काम में जुटे मिले। मंदिर की व्यवस्था में 3—4 लाख रुपया मासिक खर्च होता है। भक्त दिल खोलकर दान भी करते हैं और 10—12 लाख रुपया मंदिर चढ़ौत्री, दान—पेटी एवं 'देणगी' के रूप में लिए गए चंदे से प्रतिमाह आता है। कभी ज्यादा कभी कम भी हो जाता है। वास्तव में; फकीर बाबा का यह मंदिर शहर के गणेश टेकड़ी एवं तेलंग खेड़ी जैसे 'अच्छे चलते हुए' मंदिरों जैसा है, जहां भक्त हमेशा बने ही रहते हैं। संभवत: मंदिर की आमदनी को देखकर यहां सन् 82 से लेकर 98 के दरम्यान मंदिर की व्यवस्था पर कब्जे को लेकर लंबा संघर्ष चला। इस बीच यह मंदिर बाबा(जयंत) उत्तरवार की देखरेख में चलता रहा।