Sunday, October 27, 2013

Mere Sai Baba

भोला है सांई बाबा भोला है सांई

तुमसा कोई ना दाता तू ही जग का सुखदाता
तुमने ही सारे जग की बिगड़ी सँवारी
भोला है सांई बाबा भोला है सांई

जाकर शिरडी विराजै खन खन खन चिमटा बाजै
सिर पर है मुकुट विराजै अंग पर है कुर्ता राजै
संग में संगत विराजै शोभा है न्यारी
भोला है सांई बाबा भोला है सांई

भक्तों के दुख निवारे पल में सब काज सँवारे
सांई है भोला भाला सांई जग से निराला
लेकर कर चिमटा चल ये संगत है प्यारी
भोला है सांई बाबा भोला है सांई

कितना भी हो कोई पापी कितना भी हो परतापी
तुमने ना अन्तर की माँ जिसने जो माँगा दीन्हा
लेकर विभूति चलिये बाबा द्वारी
भोला है सांई बाबा भोला है सांई
तुमसा कोई ना दाता तू ही जग का सुखदाता
तुमने ही सारे जग की बिगड़ी सँवारी
भोला है सांई बाबा भोला है सांई



Wednesday, August 14, 2013

जन गण मन की कहानी ...

सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करता था। सन 1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजोके खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने केलिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया।पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित कियाताकि लोग शांत हो जाये।  

इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया। रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एकगीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा। उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआकरता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे, उनके बड़े भाईअवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहे।उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था। और खुद रविन्द्र नाथ टैगोर की बहुतसहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए।

रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा उसके बोल है "जन गण मन अधिनायक जय हे भारतभाग्य विधाता"। इस गीत के सारे के सारे शब्दों में अंग्रेजी राजा जोर्ज पंचम का गुणगान है, जिसका अर्थसमझने पर पता लगेगा कि ये तो हकीक़त में ही अंग्रेजो की खुशामद में लिखा गया था। 

इस राष्ट्रगान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है 

"भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है औरमानती है। हे अधिनायक (Superhero) तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो। तुम्हारी जय हो ! जय हो !जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महारास्त्र, द्रविड़मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदिया जैसे यमुना और गंगाये सभी हर्षित है, खुश है, प्रसन्न है , तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वादचाहते है। तुम्हारी ही हम गाथा गाते है। हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो ) तुम्हारी जय हो जय होजय हो। "  


जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गाया गया। जब वो इंग्लैंड चला गया तो उसनेउस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। क्योंकि जब भारत में उसका इस गीत से स्वागत हुआ थातब उसके समझ में नहीं आया था कि ये गीत क्यों गाया गया और इसका अर्थ क्या है। जब अंग्रेजी अनुवादउसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहींकी। वह बहुत खुश हुआ। उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके (जोर्ज पंचम के) लिए लिखा है उसेइंग्लैंड बुलाया जाये।  

रविन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए। जोर्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था।  उसने रविन्द्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। तो रविन्द्र नाथ टैगोर ने इस नोबलपुरस्कार को लेने से मना कर दिया। क्यों कि गाँधी जी ने बहुत बुरी तरह से रविन्द्रनाथ टेगोर को उनके इसगीत के लिए खूब डांटा था। टैगोर ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक गीतांजलिनामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़िमुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि नामक रचना के ऊपर दिया गया है। जोर्ज पंचम मान गयाऔर रविन्द्र नाथ टैगोर को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना के ऊपर नोबल पुरस्कार दिया गया।  

रविन्द्र नाथ टैगोर की ये सहानुभूति ख़त्म हुई 1919 में जब जलिया वाला कांड हुआ और गाँधी जी ने लगभगगाली की भाषा में उनको पत्र लिखा और कहा क़ि अभी भी तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरेगा तोकब उतरेगा, तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए ? फिर गाँधी जीस्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और बहुत जोर से डाटा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अंध भक्ति में डूबेहुए हो ? तब जाकर रविंद्रनाथ टैगोर की नीद खुली। इस काण्ड का टैगोर ने विरोध किया और नोबल पुरस्कारअंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया।  


सन 1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वो अंग्रेजी सरकार के पक्ष में था और 1919 केबाद उनके लेख कुछ कुछ अंग्रेजो के खिलाफ होने लगे थे।  रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जीलन्दन में रहते थे और ICS ऑफिसर थे। अपने बहनोई को उन्होंने एक पत्र लिखा था (ये 1919 के बाद कीघटना है) । इसमें उन्होंने लिखा है कि ये गीत 'जन गण मन' अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकरलिखवाया गया है। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है। लेकिन अंतमें उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं दिखाए क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखनाचाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे।

7 अगस्त 1941 को रबिन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ये पत्र सार्वजनिककिया, और सारे देश को ये कहा क़ि ये जन गन मन गीत न गाया जाये।  

1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी। लेकिन वह दो खेमो में बट गई। जिसमे एक खेमे के समर्थक बालगंगाधर तिलक थे और दुसरे खेमे में मोती लाल नेहरु थे। मतभेद था सरकार बनाने को लेकर। मोती लाल नेहरुचाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजो के साथ कोई संयोजक सरकार (Coalition Government) बने।जबकि गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देनाहै। इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया।

कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए। एक नरम दल और एक गरम दल।  गरम दल के नेता थे लोकमान्य तिलक जैसेक्रन्तिकारी। वे हर जगह वन्दे मातरम गाया करते थे। और नरम दल के नेता थे मोती लाल नेहरु (यहाँ  स्पष्टकर दूँ कि गांधीजी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो किसी तरफ नहीं थे,लेकिन गाँधी जी दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे क्योंकि गाँधी जी देश के लोगों के आदरणीय थे)। लेकिन नरमदल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे। उनके साथ रहना, उनको सुनना, उनकी बैठकों में शामिल होना।हर समय अंग्रेजो से समझौते में रहते थे। वन्देमातरम से अंग्रेजो को बहुत चिढ होती थी। नरम दल वाले गरमदल को चिढाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत "जन गण मन" गाया करते थे और गरम दल वाले "वन्देमातरम"। 


नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को ये गीत पसंद नहीं था तो अंग्रेजों के कहने पर नरम दलवालों ने उस समय एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को वन्दे मातरम नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती(मूर्ति पूजा) है। और आप जानते है कि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी है। उस समय मुस्लिम लीग भीबन गई थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे। उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकिजिन्ना भी देखने भर को (उस समय तक) भारतीय थे मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे उन्होंने भी अंग्रेजों केइशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्दे मातरम गाने से मना कर दिया।  


जब भारत सन 1947 में स्वतंत्र हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीति कर डाली। संविधानसभा की बहस चली। संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होंने बंकिम बाबु द्वारा लिखितवन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने पर सहमति जताई।  बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहींमाना। और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु।


उनका तर्क था कि वन्दे मातरम गीत से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है इसलिए इसे नहीं गाना चाहिए(दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचती थी)। अब इस झगडे का फैसलाकौन करे, तो वे पहुचे गाँधी जी के पास। गाँधी जी ने कहा कि जन गन मन के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूँ और तुम(नेहरु ) वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये। तो महात्मा गाँधी ने तीसराविकल्प झंडा गान के रूप में दिया "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा"। लेकिन नेहरु जी उस परभी तैयार नहीं हुए। नेहरु जी का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन गन मनओर्केस्ट्रा पर बज सकता है।

उस समय बात नहीं बनी तो नेहरु जी ने इस मुद्दे को गाँधी जी की मृत्यु तक टाले रखा और उनकी मृत्यु के बादनेहरु जी ने जन गण मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गयाजबकि इसके जो बोल है उनका अर्थ कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते है, और दूसरा पक्ष नाराज न हो इसलिएवन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बना दिया गया लेकिन कभी गया नहीं गया।  

नेहरु जी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे, मुसलमानों के वो इतनेहिमायती कैसे हो सकते थे जिस आदमी ने पाकिस्तान बनवा दिया जब कि इस देश के मुसलमान पाकिस्ताननहीं चाहते थे,

जन गण मन को इस लिए तरजीह दी गयी क्योंकि वो अंग्रेजों की भक्ति में गाया गया गीत था औरवन्देमातरम इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था।

बीबीसी ने एक सर्वे किया था। उसने पूरे संसार में जितने भी भारत के लोग रहते थे, उनसे पुछा कि आपको दोनोंमें से कौन सा गीत ज्यादा पसंद है तो 99 % लोगों ने कहा वन्देमातरम। बीबीसी के इस सर्वे से एक बात औरसाफ़ हुई कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय गीतों में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम है। कई देश है जिनके लोगों कोइसके बोल समझ में नहीं आते है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय है उससे एक जज्बा पैदा होता है। 

तो ये इतिहास है वन्दे मातरम का और जन गण मन का।    

जय हिंद |

साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैं

सांई राम
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैंतेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं पानी से भी तुने दीप
जलाये हैनीम के पत्ते तुने मीठे बनाये हैतेरी महिमा कैसे गुणगान गाऊ मैंतेरी नाम वाली सदा
जोत जलाऊ मैं
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैंतेरे चरणों में सदाशीश झुकाओ मैं कहाँ तुम पैदा हुएकौन
माँ बाप साईंसारी दुनिया नाअभी ताक ये जान पाई हिंदू हो ना मुस्लिमसिःक हो ना
इशाईसभी धर्मो में है समाये मेरे बाबा साईंजन्नत से प्यारी तेरी शिर्डी ही जाऊ मेंतेरी नाम
की विभूति माथे पे लगाऊ मैं
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैंतेरे चरणों में सदा शीश झुकाओ मैं बनके फ़कीर बाबा घर
घर माँगा तुनेलेके विष दुनिया से अमृत बाटा तुने दिनदुखियों का दुःख अपना ही जाना
तुनेसारा संसार साईं अपना ही माना तुने तुझसा दयालु कही ढूँढ ना पाऊ मेंतेरी करुना के गीत
सबको सुनाऊ मैं
साईं तेरी लीला कभी समझ ना पाऊ मैंतेरे चरणों में सदाशीश झुकाओ मैं साईं तेरा जीवन भी
कितना महान हैचरणों में तेरे सारा झुकता जहान है किसके है भाव कैसे तुने पहचान हैबाबा तेरी
शक्ति पे राणा कुर्बान हैतुझसे बिहड़ कर ना कभी रह पाऊ मेंतेरा बस तेरा बस तेरा ही
होजाऊ मैं
पानी से भी तुने दीप जलाये हैनीम के पत्ते तुने मीठे बनाये हैतेरी महिमा कैसे गुणगान गाऊ
मैंतेरी नाम वाली सदा जोत जलाऊ मैं !
ॐ सांई राम

Tuesday, May 21, 2013

Guru


                                                            गुरु-गुरु में अंतर न करें




किसी अन्य गुरु के शिष्य पंत नाम के एक सज्जन कहीं जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठे थे| वे शिरडी नहीं आना चाहते थे, पर विधाता के लिखे को कौन टाल सकता है ! जो मनुष्य सोचता है, वह पूरा कभी नहीं होता| होता वही है जो परमात्मा चाहता है| जिस डिब्बे में वह बैठे थे| अगले स्टेशन पर उसी डिब्बे में कुछ और लोग भी आ गये| इनमें से कुछ उनके मित्र और सम्बंधी भी थे| वे सभी लोग शिरडी जा रहे थे| संत से मिलकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई| सब लोगों ने पंत से शिरडी चलने को कहा| पंत स्वयं दूसरे गुरु के शिष्य थे| वे सोचने लगे, मैं अपने गुरु के होते हुए दूसरे गुरु के दर्शन करने क्यों जाऊं? उन्होंने उन्हें बहुत टालना चाहा लेकिन सबके बार-बार आग्रह करने पर आखिर वे तैयार हो गए|

शिरडी पहुंचने पर सब लोग सुबह ग्यारह बजे बाबा के दर्शन करने के लिए मस्जिद गये| साईं बाबा को देखकर पंत का मन आनंदित हो उठा, परन्तु तभी पंत बेहोश होकर गिर पड़े| उन्हें बेहोश देख उनके मित्रादि व अन्य उपस्थित भक्त घबरा गये| तब साईं बाबा ने उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे, तो वह तुरंत होश में आकर उठ बैठे| बाबा तो जान चुके थे कि यह किसी अन्य गुरु के शिष्य हैं| तब बाबा बोले - "देखो पंत, व्यक्ति को हर हालत में अपने गुरु पर निष्ठा कायम रखनी चाहिए| सदैव उस पर स्थिर रहे, लेकिन सब संतों में अंतर न करो| सभी एक ही डाल के पंछी हैं| सब में एक ही ईश्वर रहता है|"

बाबा के ऐसे वचन सुनकर पंत को अपने गुरु का स्मरण हो आया| गुरु और बाबा का शरीर अलग होने पर ही दोनों में एक ही परमात्मा रहता है, यह जान गये और जीवन भर बाबा की कृपा को नहीं भूले


Sunday, March 3, 2013

Mera Sai



संतों की भूमि महाराष्ट्र में साईंबाबा का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा के साथ तो लिया ही जाता है, उनके अनेक मंदिर भी जगह-जगह बन चुके हैं। सन् 1918 की विजयादशमी के दिन शिरडी .शिलधी. में समाधि लेने वाले साईं बाबा का न तो जन्मकाल किसी को मालूम है, न ही उनके माता-पिता के बारे में और न उनके जाति-धर्म के बारे में।उन्होंने अपनी साधना और जनसेवा का केंद्र शिरडी की एक टूटी—फुटी मस्जिद को बनाया, जिसके कारण कई लो...ग संदेह करते हैं कि वह हिंदू नहीं मुसलमान थे।

सन् 1840-50 के दरम्यान उन्हें शिरडी के खंडोबा मंदिर के पास देखा गया। एक बड़े काश्तकार चांदभाई पाटील सर्वप्रथम उनके संपर्क में आए। बताया जाता है कि उनका घोड़ा गुम हो गया था, जिसे खोजने वे जंगल गए, जहां एक 15—16 साल का फकीरी बाना पहने एक बालक उन्हें मिला। उसने नाम लेकर घोड़ा वहीं बुला दिया। पाटील इस तिलस्मी युवक के मुरीद हो गए। धूपखेड़ गांव के पाटील उस फकीर को अपने साथ ले आए। कुछ दिनों बाद वे अपने भांजे की बारात लेकर शिरडी गए तो फकीर भी बारात में गया और शिरडी का ही होकर रह गया। आज दुनिया उसे शिरडी के साईंबाबा के नाम से जानती है।

छोटे से गांव से चारों ओर

सन् 1850 से लेकर 1918 के बीच में साईंबाबा ने शिरडी में अपने कई चमत्कार दिखाए। उनका नाम छोटे से गांव के चारों ओर फैला और तमाम जगहों से भक्त उनके पास पहुंचने लगे।
शिरडी में उनसे जुड़े लोगों ने उनका सिलसिलेवार प्रचार किया और देश में जगह—जगह उनके मंदिर बनवाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। सन् 71 में नागपुर के विजय बाबा कोंड्रा शिरडी गए हुए थे तो वहां के कोर्ट रिसीवर काशी पाठक ने कोंड्राजी से कहा कि जिस नागपुर की गोपालराव बूटी जैसी हस्ती साईंबाबा की सेवा में रहती थी, वहां मंदिर क्यों नहीं बन रहा। साईबाबा के अनन्य भक्त व सिद्ध पुरूष माने जाने वाले विजय बाबा कोंड्रा को यह बात लग गई। उन्होंने नागपुर आकर उस समय के शहर के गिने—चुने भक्तों से चर्चा की। हितवाद के तत्कालीन संपादक ए.डी. मणि और तत्कालीन क्षेत्रीय सांसद एन.के.पी. साल्वे ने इस मसले पर तुरंत सहमति दी एक सात सदस्यीय ट्रस्ट का गठन हुआ। इस ट्रस्ट के प्रयासों से सन् 74 में वर्धा रोड में 20,000 वर्ग फीट जमीन खरीदी गई; सन् 76 में भूमिपूजन हुआ और 3 दिसंबर सन् 79 को दत्त जयंती के दिन मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो गई।
'संतवाणी' में दिलीपकुमार

वर्धा रोड स्थित उक्त मंदिर में नागपुर का पहला साईं मंदिर है। इसकी कई विशेषताएं हैं— एक तो यह कि इसमें बाबा की जो प्रतिमा विराजमान है वह शिरडी में विराजी प्रतिमा की अनुकृति है और मुंबई के उसी 'तालीम आर्ट' ने बनाया है जिसने शिरडी की मूल प्रतिमा बनाई थी। मंदिर की दूसरी विशेषता यह कि इस मंदिर निर्माण के लिए पैसा जुटाने के क्रम में सन् 74 में प्रख्यात शास्त्रीय संगीत गायक भीमसेन जोशी का गायन कार्यक्रम 'संतवाणी' नागपुर में आयोजित किया गया और उसमें फिल्म अभिनेता दिलीपकुमार मुख्य अतिथि बनाकर बुलाए गए। इसी क्रम में सन् 77 में धर्मेंद्र—हेमामालिनी की उपस्थिति में 'शैलेंद्र सिंह नाइट' का आयोजन भी हुआ।

जहां तक विदर्भ में साईं मंदिरों के निर्माण की अवधि का सवाल है तो सन् 70 में अमरावती में साईंबाबा का पहला मंदिर बना। तदुपरांत चंद्रपुर और वर्धा में मंदिर बने। फिर सन्79 के आखिर में नागपुर में पहला वृहद मंदिर बना। वैसे यहां धंतोली में साईंबाबा का मंदिर और है जिसे स्वयंभू कहते हैं और जो सन् 1956 में बना। वास्तव में, इस मंदिर के संचालक विजय बाबा कोंड्रा ही वर्धा रोड स्थित बड़े मंदिर के सूत्रधार भी हैं।
भक्त बढ़ रहे हैं बाबा के

साईंबाबा के मुरीदों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज जरीपटका, अयोध्या नगर और साईंनगर झिंगाबाई टाकली में भी साईं मंदिर हैं पर सर्वोपरि वर्धा रोड स्थित साईं मंदिर ही है। शहर के हर भाग से यहां लोग पहुंचते हैं। गुरुवार के दिन भक्तों की भीड़ देचते ही बनती है। दोपहर में देर तक चलती आरती के दरम्यान सामने खड़े नर—नारियों और बच्चों की सामूहिक प्रार्थना को सुन बाबा मंद—मंद मुस्कुराते बैठे सबको देखते नजर आते हैं। सामान्यत: साईंबाबा को दत्त़ात्रेय का अवतार माना जाता है पर यह भी एक सच्चाई है कि बाबा स्वयं दत्तात्रेय के उपासक नहीं बल्कि राम के उपासक थे।

कई मौकों पर वे अपने भक्तों को हनुमान जी पूजा करने तथा कभी शंकर की उपासना करने की सलाह भी देते थे। शिरडी के उनके शुरुआती काल में जब लोगों ने उन्हें तेल तक देने से मना कर दिया तो बाबा ने 'द्वारका माई'में पानी के दीपक जगमगा कर चकित कर दिया। लोग उनके पास अपनी शारीरिक व्याधियां दूर कराने जाने लगे। कोई भूत—बाधा दूर कराने, कोई पुत्र प्राप्ति के लिए तो कोई धन—धान्य से समृद्ध होने उनके पास आने लगे। कहा जाता है कि बाबा योग विद्या भी जानते थे। एक बार शिरडी के आसपास प्लेग फैला तो बाबा ने स्वयं पत्थ्र की चकिया पीसकर आटा निकाला और लोगों से उसे गांव की सीमारेखा पर डालने के लिए कहा ताकि प्लेग बस्ती के अंदर न घुसे और ऐसा हुआ भी।

शिरडी में आज भी वह आटा—चक्की रखी है। नागपुर के साईबाबा मंदिर में भी सन् 2002 में जब नवनिर्माण् हुआ तो वहां प्रतीक के तौर पर एक चकिया धूनी स्थल के पास रख दी गई है। भगवान दत्त, गणेश, दुर्गा माता के अलावा यहां एक शिवलिंग भी स्थापित है। बाबा के टीक सामने दरवाजे पर एक नंदी भी बिठाया गया है। अनेक भक्त इस नंदी के कान में अपनी मनोकामना बताते हुए देखे जाते हैं। उनकी मान्यता है कि नंदी हमारी कामना को बाबा से कहकर पूरी कराएगा क्योंकि दत्तात्रेय भगवान में शंकर का रूप भी था और शंकर के वाहक नंदी हैं।
गुरुवार को भीड़

मंदिर में गुरुवार को अच्छी खसी भीड़ होती है। दरवाजे से लगी दुकानों की वजह से थोड़ी अव्यवस्था है, जिसे वर्तमान मंदिर—प्रबंधक वर्ग दूर करने में लगा है। मंदिर के बगल में बने कार्यालय भवन में विजय विनायक पाठक नामक व्यक्ति लेखा—जोखा के काम में जुटे मिले। मंदिर की व्यवस्था में 3—4 लाख रुपया मासिक खर्च होता है। भक्त दिल खोलकर दान भी करते हैं और 10—12 लाख रुपया मंदिर चढ़ौत्री, दान—पेटी एवं 'देणगी' के रूप में लिए गए चंदे से प्रतिमाह आता है। कभी ज्यादा कभी कम भी हो जाता है। वास्तव में; फकीर बाबा का यह मंदिर शहर के गणेश टेकड़ी एवं तेलंग खेड़ी जैसे 'अच्छे चलते हुए' मंदिरों जैसा है, जहां भक्त हमेशा बने ही रहते हैं। संभवत: मंदिर की आमदनी को देखकर यहां सन् 82 से लेकर 98 के दरम्यान मंदिर की व्यवस्था पर कब्जे को लेकर लंबा संघर्ष चला। इस बीच यह मंदिर बाबा(जयंत) उत्तरवार की देखरेख में चलता रहा।


Tuesday, February 12, 2013

Maa




माँ…
माँ संवेदना है, भावना है, अहसास है माँ…
माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है, माँ…
माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पालना है, माँ…
माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है, माँ…
... माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है, माँ…
माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जापहै, माँ…
माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है, माँ…
माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है, माँ…
माँ झुलसते दिलों में कोयलकी बोली है, माँ…
माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है, माँ…
माँ कलम है, दवात है, स्याही है, माँ…
माँ परमात्मा की स्वयँ एक गवाही है, माँ…
माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है, माँ…
माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ…
माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है, माँ…
माँ चिंता है, याद है, हिचकी है, माँ…
माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है, माँ…
माँ चूल्हा-धुंआ-रोट ी और हाथों का छाला है,
माँ…
माँ ज़िंदगी की कडवाहट में अमृत का प्यालाहै,
माँ…
माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है, माँ बिना इस
सृष्टी की कल्पना अधूरी है, तो माँ की ये
कथा अनादि है, ये अध्याय नही है…
…और माँ का जीवनमें कोई पर्यायनहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछहो नहीं सकता, मैं
कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ, और
दुनिया की सभी माताओं
को प्रणाम.


Click here for Myspace Layouts

Total Pageviews